Saturday, February 18, 2017

Gajendra moksham - Bhagavatam - Indian Mythology


For all those who wanted Gajendra Moksham in Sanskrit and its translation in Hindi and english along with it : (I've though given its recitation link of Utube in one of the previous posts dt: feb 12th 2017)



GAJENDRA’S PRAYERS OF SURRENDER TO LORD VISHNU ::
   [Skandha 8 Chapter 3]

गजेन्द्र उवाच
shri-ganjendra uvachaGajendra said:

नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्
पुरुषायादिबीजाय
परेशायाभिधीमहि॥2
om namo bhagavate tasmai yata  etac chid-atmakam
    
purushayadi-bijaya pareshayabhidhimahi  -2

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं
इदं स्वयम्|
योऽस्मातपरस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।।३।।
yasminn idam yatash chedam yenedam  ya idam svaya yo ‘smat parasmach cha paras
tam  prapadye svayambhuvam -3

जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को
पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं, “शब्द के द्वारा लक्षित तथा
सम्पूर्ण शरीरों में प्रकृति एवं पुरुष रुप से प्रविष्ट हुए उन सर्वसमर्थ परमेश्वर
को हम मन-ही-मन नमन करते हैं।।२।।
जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह
निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रुप में प्रकट हैं-फिर भी
जो इस दृश्य जगत् से एवं उसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण) एवं
श्रेष्ठ हैं-उन अपने-आप-बिना किसी कारण के-बने हुए भगवान् की मैं शरण लेता
हूँ।।३।।
I salute the Supreme, Omnipotent  Lord, who is denoted by the mystical syllable OM, who forms the bodies a prakriti,  and dwells in them as purusha, the Self-efficient Lord, from whom this  universe emanates, and in whom it lives, who is verily the universe itself, yet  beyond it as its unmanifest cause.


यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व
तत्तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते आत्ममूलोऽवतु मां
परात्परः।।४।।
yah svatmanidam  nija-mayayarpitam kvachid vibhatam kva cha
tat tirohitamaviddha-drik sakshy ubhayam  tad ikshate sa atma-mula
‘vatu mam parat-paraha – 4

अपनी संकल्प-शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरुप
में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट
रहनेवाले इस शास्त्रप्रसिद्ध कार्य-कारण रुप जगत् को जो अकुण्ठित-दृष्टि होने के
कारण साक्षी रुप से देखते रहते हैं-उनसे लिप्त नहीं होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों
के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।।४।।

He is the unimpeded Awareness and  the Witness of all, who by his own Maya (power) has established in Himself this  universe, which is seen in its manifested condition and not-seen in its causal  state by others, but is witnessed by Himself in both these conditions. He is  the Self-conscious awareness, from whom all other centers of self-conscious  awareness (Jivas) arise.  I seek refuge  in that Being, transcending all the highest human conceptions of Him.


कालेन
पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु सर्वहेतुषु।
तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।५।।
kalena pancatvam iteshu  kritsnasho
lokeshu paleshu cha sarva-hetushu
     tamas tadasid gahanam gabhiram  yas
tasya pare ‘bhivirajate vibhuhu – 5

समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के
एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूतों में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर
महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकारणरुपा प्रकृति ही बच रही थी। उस
अन्धकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान् सब ऒर प्रकाशित रहते हैं, वे
प्रभु मेरी रक्षा करें।।५।।
When all the worlds and their illuminaries  and protectors like Brahma had been dissolved or reduced to their primeval  state by the power of Time and only the fathomless darkness or ignorance in the  shape of the Unmanifest  prevailed, at  that time He, the Supreme Light of Consciousness shone undimmed over such  darkness.


यस्य देवा ऋषयः पदं
विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः मावतु।।६।।
na yasya deva rishayah padam  vidur jantuh
punah ko ‘rhati gantum iritum
     yatha natasyakritibhir  vicheshtato
duratyayanukramanah sa mavatu – 6

भिन्न-भिन्न रुपों में नाट्य करने वाले
अभिनेता के वास्तविक स्वरुप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते, उसी प्रकार
सत्त्वप्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरुप को नहीं जानते, फिर दूसरा साधारण जीव
तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है-वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा
करें।।६।।
The spectators in a drama do not  understand the identity of an actor because of his make up and diverse actions  on the stage. So too, the Gods and the Sages do not comprehend Him, The Lord,  who is disguised in His own Yoga Maya. How then an ordinary person, much less  an animal like me, can understand or describe anything about His inscrutable  ways? May that Lord, whom none knows, in truth and in reality, protect me!


दिदृक्षवो यस्य
पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भुतात्मभूताः
सुह्रदः मे गतिः।।७।।
didrikshavo yasya padam  sumangalam vimukta-sanga
munayah susadhavaha
     charanty aloka-vratam avranam  vane bhutatma-bhutah
suhridah sa me gatihi. – 7

आसक्ति से सर्वथा छूटे हुए, सम्पूर्ण
प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले, सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु-स्वभाव मुनिगण
जिनके परम मंगलमय स्वरुप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रहकर अखण्ड
ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं, वे प्रभु ही मेरी गति हैं।।७।।

Let that Lord be my refuge, whom  the sages, giving up all attachments for worldly attractions, wandering in the  forests and performing incessant penances, search for.


विद्यते यस्य जन्म कर्म वा नामरुपे
गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया यः
तान्यनुकालमृच्छति।।८।।
na vidyate yasya cha janma  karma va na nama-rupe
guna-dosha eva va tathapi lokapyaya-sambhavaya  yaha sva-mayaya tany
anukalam ricchati – 8

जिनका हमारी तरह कर्मवश तो जन्म होता है और
जिनके द्वारा अहंकारप्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरुप का तो कोई
नाम है रुप ही, फिर भी जो समयानुसार जगत् की सृष्टि एवं प्रलय (संहार)-के लिये
स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं।।८।।
He who has neither birth nor 
actions to perform, neither name and form nor is subject to the Gunas of  Prakriti,  and yet assumes all these  through His inherent power of Maya from time to time for the creation, preservation  and dissolution of the universe - to that Supreme Being, I bow down !


तस्मै नमः परेशाय
ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरुपायोरुरुपाय नम आश्चर्यकर्मणे।।९।।
tasmai namah pareshaya brahmane  ‘nanta-shaktayearupayoru-rupaya nama  ashcarya-karmane – 9

उन अनन्तशक्तिसम्पन्न परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार
है। उन प्राकृत आकार रहित एवं अनेकों आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान् को बार-बार
नमस्कार है।।९।।
To Him, the Brahman, the  formless, who, yet assumes infinite forms and performs amazing deeds, to that Supreme Being, I bow down!


नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां
विदूराय मनसश्चेतसामपि।।१०।।
nama atma-pradipaya sakshine  paramatmanenamo giram viduraya manasash  chetasam api.-10

स्वयंप्रकाश एवं सबके
साक्षी परमात्मा को नमस्कार है। उन प्रभु को, जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी
सर्वथा परे हैं, बार-बार नमस्कार है।।१०।।
I bow down to the Lord who cannot be reached by speech or by the mind or by diverse mental faculties and who 
remaining as a witness to all phenomena of the world, illumines it!


सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्विता
नमः कैवल्यनाथाय
निर्वाणसुखसंविदे।।११।।
sattveno pratilabhyaya naishkarmyena  vipashcita namah kaivalya-nathaya nirvana-sukha-samvide  -11

विवेकी पुरुष के
द्वारा सत्त्वगुण विशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष-सुख
के देने वाले तथा मोक्ष-सुख की अनुभूति रुप प्रभु को नमस्कार है।।११।।
I bow down to the Lord who is  attainable by a wise man through purity of mind, to the Lord who is the bestower  of final beatitude, who is Wisdom and Bliss.



नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो
ज्ञानघनाय च।।१२।।
namah shantaya ghoraya mudhaya  guna-dharmine nirvisheshaya samyaya namo  jnana-ghanaya cha -12   

सत्त्वगुण को
स्वीकार करके शान्त, रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ-से
प्रतीत होने वाले, भेदरहित; अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार
है।।१२।।
I bow down to the Lord who  through assumption of three Gunas appears as calm and peaceful (due to absence  of desire, greed, and anger), who is terrible (on account of destroying the  wicked), who is devoid of all distinctions, who is without any modifications,  remains same always and in all places and who is wisdom crystallized.


क्षेत्रज्ञाय
नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये
नमः।।१३।।
ksetra-jnaya namas tubhyam sarvadhyakshaya  sakshine purushayatma-mulaya mula-prakritaye  namaha – 13

शरीर, इन्द्रिय आदि के
समुदायरुप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षीरुप आपको नमस्कार है।
सबके अन्तर्यामी, प्रकृति के भी परम कारण, किंतु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार
है।।१३।।
I bow down to the Lord who is the  Knower of the field (body), who is presiding over and witnessing everything,  who is the source of spirit and matter ( atman and prakriti) and who is the  Original Being (Mula Prakriti).



सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय
सदाभासाय ते नमः।।१४।।
sarvendriya-guna-drashtre sarva-pratyaya-hetave asata cchayayoktaya sad-abhasaya  te namaha -14

सम्पूर्ण इन्द्रियों
एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारणरुप, सम्पूर्ण जड-प्रपञ्च एवं
सबकी मूलभूता अविद्यारुप के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में
अविद्यारुप से भासने वाले आपको नमस्कार है।।१४।।
I bow down to the Lord, who is  the perceiver of all organs of perception and their objects, who makes all
the  concepts and precepts possible, whose true nature is made known by bestowing  consciousness to the ego (I-sense) just as the   substance  behind a shadow.


नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय।

सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय।।१५।।
namo namas te‘khila-karanaya nishkaranayadbhuta-karanaya sarvagamamnaya-maharnavaya
namo‘pavargaya  parayanaya -15

सबके कारण किन्तु स्वयं कारणरहित तथा कारण
होने पर भी परिणामरहित होने के कारण अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार
नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरुप एवं श्रेष्ठ
पुरुषों की परम गति भगवान् को नमस्कार है।।१५।।
You are the cause of all the  causes, but you yourself are not the effect of any cause. You are the wonderful 
cause because the ordinary causes undergo change when they become the effects,  but you produce the world without undergoing any change. You are the scriptures  and you are the ocean into which all the scriptures flow. You are the bliss of  salvation and the refuge of great souls. I bow down to you.


गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।
नैष्कर्म्यभावेन
विवर्जितागमस्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि।।१६।।
gunarani-cchanna-chid-ushmapaya 
tat-kshobha-visphurjita-manasaya
naishkarmya-bhavena vivarjitagama 
svayam-prakashaya namas karomi -16

जो त्रिगुणरुप काष्ठों में छिपे हुए
ज्ञानमय अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की
बाह्यवृत्ति जाग्रत् हो जाती है तथा आत्मतत्त्व की भावना के द्वारा विधि-निषेधरुप
शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माऒं में जो स्वयं प्रकाशित रहते हैं, उन प्रभु
को मैं नमस्कार करता हूँ।।१६।।
I bow down to you. who are the  spiritual fire of consciousness which remains hidden in the fire-wood of  prakriti’s gunas. When the equilibrium of gunas is disturbed, there arises in  you the will to create. You shine by your own luster in the minds of those who  having given up the scriptures and actions prescribed in them and keep  themselves engaged in your contemplation.


मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय
भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते
नमस्ते।।१७।।
madrik  prapanna-pashu-pashu-vimokshanaya muktaya
bhuri-karunaya namo‘layaya
 svamshena sarva-tanu-bhrin-manasi 
pratita-pratyag-drishe bhagavatebrihate Namaste -17

मुझ-जैसे शरणागत
पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव की अविद्यारुप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरुप से काट
देने वाले अत्यधिक दयालु एवं दया करने में कभी आलस्य करने वाले नित्यमुक्त प्रभु
को नमस्कार है। अपने अंश से सम्पूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रुप से प्रकट रहने
वाले सर्वनियन्ता अनन्त परमात्मा आपको नमस्कार है।।१७।।
I bow down to you who bless  ignorant creatures like me by severing our binding fetters of ignorance; who  are ever free yourself and ever- watchful in bestowing your mercy to save the  devotees and who by an atom of yourself shine in all embodied beings as  individualized self-consciousness without any mutilation to yourself as the  Absolute Being and the Absolute Will.



आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।

मुक्तात्मभिः स्वह्रदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।१८।।

atmatma-japti-griha-vitta-janeshu  saktair dushprapanaya
guna-sanga-vivarjitaya
     muktatmabhih sva-hridaya  paribhavitaya
jnanatmane bhagavate nama ishvaraya -18

शरीर, पुत्र, मित्र, घर,
सम्पत्ति एवं कुटुम्बियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले
तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरुप,
सर्वसमर्थ भगवान् को नमस्कार है।।१८।।
I bow down to you who are the 
embodiment of Pure consciousness and the Lord of all who, though indweller of 
all, are difficult to approach by those who are attached to their own body, to 
relations like wife, children, kith and kin, and to possessions like property 
wealth etc. You are beyond the gunas of prakriti though functioning through 
them and who are immediately perceived in the cavity of their hearts by those
who  are free from ignorance.


यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो
विमोक्षणम्।।१९।।
yam  dharma-kamartha-vimukti-kama bhajanta ishtam gatim
apnuvanti
     kim chashisho raty api deham  avyayam karotu me‘dabhra-dayo
vimokshanam – 19

जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन एवं मोक्ष की कामना से
भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं, अपितु जो उन्हें अन्य प्रकार के अयाचित
भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से
सदा के लिये उबार लें।।१९।।
O Lord! You gave Dharma, Artha,  Kama and Moksha
to those who seek them from you and even bestow them with final  Bliss. You, who
are so merciful, may be pleased to liberate me from the grip of  the crocodile
and also from the cycle of births and deaths.


एकान्तिनो यस्य
कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः।।२०।।
ekantino yasya na  kanchanartham vanchanti ye
vai bhagavat-prapannaha
     aty-adbhutam tach-charitam  sumangalam gayanta
ananda-samudra-magnaha – 20

जिनके अनन्य भक्त- जो वस्तुतः एकमात्र उन
भगवान् के ही शरण हैं- धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाहते, अपितु उन्हीं
के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र के
गोते लगाते रहते हैं।।२०।।
Your devotees who take refuge in  you do not ask
for anything except you. They are immersed in the ocean of bliss  by singing
your glories and wonderful stories.


तमक्षरं ब्रह्म परं
परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं
परिपूर्णमीडे।।२१।।
tam aksharam brahma param  paresham avyaktam
adhyatmika-yoga-gamyam
     atindriyam sukshmam ivatiduram  anantam adyam
paripurnam ide – 21

उन अविनाशी, सर्वव्यापाक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के
भी नियामक, अभक्तों के लिये अप्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य,
अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होनेवाले,
इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किन्तु सबके आदि
कारण एवं सब ऒर से परिपूर्ण उन भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।।२१।।
I glorify
that Imperishable  Being, the Brahman, the overlord of Brahma and others, the
one who is not  perceivable by the senses and the mind, the Being who is
attainable only by  meditation, the Being who is subtle and infinite, the one
though closest to all  but appears to be far to the ignorant, the one who is
ancient, without  beginning or end and who is fully perfect.



यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरुपविभेदेन फलव्या कलया
कृताः।।२२।।
yasya bramadayo deva veda  lokash characharaha
    
nama-rupa-vibhedena phalgvya  cha kalaya kritaha – 22

ब्रह्मादि समस्त
देवता, चारों वेद तथा सम्पूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति के भेद से जिनके अत्यन्त
क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं।।२२।
Brahma and the other gods, the 
Vedas, living and non-living beings with varied names and forms are all made 
out of a small part of the Supreme Being.


यथार्चिषोऽग्नेः
सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः।।२३।।
yatharchisho‘gneh savitur  gabhastayo
niryanti samyanty asakrit sva-rochishaha
     tatha yato‘yam guna-sampravaho 
buddhir manah khani sharira-sargaha – 23

जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से
लपटें तथा सूर्य से किरणें बार-बार निकलती हैं और पुनः अपने कारण में लीन हो जाती
हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर-यह गुणमय प्रपञ्च
जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्हीं में लीन हो जाता
है।।२३।।
As the sparks of a fire or the  shining rays of the sun emanate 
from  their source and merge into it again and again, the mind, the 
intelligence,  the senses, the gross and  subtle material bodies, and the
continuous   transformations of the different modes of nature all emanate from
the  Lord and  again merge into Him.


वै
देवासुरमर्त्यतिर्यङ् स्त्री षण्ढो पुमान् जन्तुः।
नायं गुणः कर्म
सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः।।२४।।
sa vai na  devasura-martya-tiryan na
stri na sandho na puman na jantuhu
     nayam gunah karma na san na  casan
nishedha-shesho jayatad ashesaha – 24

वे भगवान् वास्तव में तो देवता
हैं, असुर, मनुष्य हैं तिर्यक् (मनुष्य से नीची-पशु, पक्षी आदि किसी) योनी के
प्राणी हैं। वे स्त्री हैं पुरुष ऒर नपुंसक ही हैं। वे ऐसे कोई जीव हैं
जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके। वे गुण हैं कर्म, कार्य
हैं तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरुप है और
वे ही सब कुछ हैं। ऐसे भगवान् मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों।।२४।।
That
Lord is certainly not a Deva  or Asura or a human being or a beast or a male or
a female or of neuter gender.  He is neither an attribute nor an action, neither
cause nor effect, neither a  being (sat) nor a non-being (asat) He is what
remains after  everything has been negated (neti, neti) and constitutes all. May
all  glories go to Him!


जिजीविषे नाहमिहामुया
किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य
मोक्षम्।।२५।।
jijivishe naham ihamuya kim antar  bahish
chavritayebha-yonya
   icchami kalena na yasya  viplavas
tasyatma-lokavaranasya moksha – 25

मैं इस ग्राह के चंगुल से छूटकर जीवित
रहना नहीं चाहता; क्योंकि भीतर ऒर बाहर-सब ऒर से अज्ञान के द्वारा ढके हुए इस हाथी
के शरीर से मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान
की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने-आप नाश नहीं होता, अपितु भगवान् कि
दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है।।२५।।
I have no desire to live on in 
this world. Of what use is life in this elephant body wherein veils of 
ignorance hide the spiritual vision both from within and without?  It is not
from the crocodile threatening my  life that I pray for release, but from this
obstructive screen of ignorance  hiding the awareness of my spiritual self - an
unhelpful veil that Time cannot  undo but only illumination can. For, Time will
put an end to the physical body  but not to ignorance which persists till your
grace removes it.


सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं
विश्ववेदसम्।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्।।२६।।
so‘ham
vishva-srijam vishvam avishvan  vishva-vedasam
     vishvatmanam ajam brahma
pranato‘smi  param padam – 26

इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के
रचयिता, स्वयं विश्व के रुप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना
बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मारुप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापक एवं
प्राप्तव्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्रीभगवान् को केवल प्रणाम ही करता हूँ-उनकी
शरण में हूँ।।२६।।
Now, fully desiring release from  material life, I bow
down to Him, who is the creator of the universe, who is  Himself the form of the
universe and who is nonetheless transcendental to this  cosmic manifestation for
whom the world is a toy, an object of sport, who is  the soul of the universe,
who is unborn, all pervading and the Supreme Being,  Brahman.



योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं
नतोऽस्म्यहम्।।२७।।
yoga-randhita-karmano hridi  yoga-vibhavite
    
yogino yam prapashyanti yogesham  tam nato‘smy aham – 27

जिन्होंने
भगवद्भक्तिरुप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा
शुद्ध किये हुए अपने ह्रदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को
मैं नमस्कार करता हूँ।।२७।।
I bow down to that Lord of Yoga,  who is seen in
the core of the heart by the yogis who have purified and freed themselves  from
the agitations of past karma by practicing bhakti.



नमो
नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।२८।।
namo namas tubhyam  asahya-vega-
shakti-trayayakhila-dhi-gunaya
   prapanna-palaya  duranta-shaktaye
kad-indriyanam anavapya-vartmane – 28

जिनकी त्रिगुणात्मक
(
सत्त्व-रज-तमरुप) शक्तियों का रागरुप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के
विषयरुप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची-पची रहती
हैं- ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपार
शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है।।२८।।
You have formidable strength. The 
force of your three kinds of energy - sattva, rajas and tamas, is irresistible. 
You are the protector of those who take refuge in you. You manifest yourself as 
the objects of the senses. You are unapproachable by those who are unable to 
control their senses. I bow down to you again and again.


नायं
वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।
तं दुरत्ययामाहात्म्यं
भगवन्तमितोऽस्म्यहम्।।२९।।
nayam veda svam atmanam yach-chaktyaham-dhiya 
hatam
     tam duratyaya-mahatmyam bhagavantam  ito‘smy aham – 29


जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरुप अहंकार से ढके हुए अपने स्वरुप को यह जीव जान
नहीं पाता, उन अपार महिमावाले भगवान् की शरण आया हूँ।।२९।।
I offer my
respectful obeisance  to that Supreme Being, whose Yoga Maya creates the
ego-sense which hides the  real Self from all in the world and whose glory and
power are endless.


2 comments:

Madhumita said...

Excellent! Thank you for sharing this with us.

REVATHI said...

if there is any para (though the translation seems very easy to understand), still if you don't get any para or want detailed explanation, let me know.....many i've already explained either in class or in previous posts too.....